२७ सप्टेंबर १९९० रोजी बदिउज़्ज़माँ ख़ावर हा माणुसकीचा गहिवर असलेला जिवंत मनाचा कवी-गझलकार जरी कालवश झाला असला तरीही आज ३३ वर्षे होऊन गेली तरी त्यांच्या गझलेतील ताजेपणा तसाच कायम आहे.

खावर यांची ग्रंथसंपदा मोठी आहे. त्यांचे मराठीत ‘गझलात रंग माझा , ‘माझिया गझला मराठी’, ‘चार माझी अक्षरे’, ‘समग्र खावर’ गझल संग्रह प्रकाशित आहेत. तर उर्दू मध्ये ‘हुरुफ’,’मेरा वतन हिंदोस्ताँ’, ‘बयाज’, ‘अमराई’, ‘लफ्जों की पैरहन’, ‘सात समंदर’, ‘नन्ही किताब’, ‘मोती-फूल-सितारे’, ‘सब्जों ताजा निहालों के अंबोह मे’ हे संग्रह प्रकाशित आहेत.

या व्यतिरिक्त त्यांनी मराठी कवितांचा उर्दूमध्ये अनुवादही केला आहे. त्यात ‘खुशबू’, ‘सबील’, ‘मराठी रंग’, ‘दिनार’,’निले पहाड की नज्मे’ इत्यादी पुस्तकांचा समावेश आहे. याशिवाय त्यांनी मराठी कथांचा उर्दूत आणि उर्दू कथांचा मराठीत अनुवाद देखील केला आहे.

‘खावर’ यांच्या साहित्यसेवेला ‘इम्तियाझे मीर सनद’ या उर्दूतील मोठ्या पुरस्कारासह भारत सरकार,महाराष्ट्र सरकार आणि इतर तब्बल १४ पुरस्कारांनी सन्मानित करण्यात आले आहे.

खरेतर या मोठ्या साहित्यिकाच्या स्मृती दापोलीकरांना आहेत कि नाही अशी स्थिती आहे. त्यांचे वास्तव्य असलेला ‘खावर विला’ ही त्यांची खासगी मालमत्ता सोडल्यास काहीच दिसत नाही.

त्याच्या घराच्या दिशेने जाणाऱ्या मंडणगड रस्त्याच्या एस. टी. बसस्थानका जवळील चौकास खावर सरांचे नाव दिल्यास ते औचित्यपूर्ण आणि संयुक्तीक होवू शकेल आणि दापोलीकर कृतघ्न नाहीत याचा पुरावाही मिळेल !

– कैलास गांधी, दापोली

मराठी
1.
तो रंग नाही राहिला, तो वास नाही राहिला
बागेत कोठेही आता मधुमास नाही राहिला

नव्हतीस तू येथे तुझा आभास तेंव्हा व्हायचा
आलीस तू आता तुझा आभास नाही राहिला

कुठलेच माझे बोलणे मानीत नाही मी खरे
माझ्यावरी माझा आता विश्वास नाही राहिला

शोधू अता ‘खावर’ मला मी कोणत्या ग्रंथामधे
बखरीतल्या गप्पांमधे इतिहास नाही राहिला

उर्दू
1.
रौशनी ही रौशनी है शहर में
फिर भी गोया तीरगी है शहर में

रोज़-ओ-शब के शोर-ओ-ग़ुल के बावजूद
इक तरह की ख़ामुशी है शहर में

रेल की पटरी पे सो जाते हैं लोग
कितनी आसाँ ख़ुद-कुशी है शहर में

जो इमारत है वो सर से पाँव तक
इश्तिहारों से सजी है शहर में

गाँव छोड़े हो चुकी मुद्दत मगर
‘ख़ावर’ अब तक अजनबी है शहर में

2.
आग ही काश लग गई होती
दो घड़ी को तो रौशनी होती

लोग मिलते न जो नक़ाबों में
कोई सूरत न अजनबी होती

पूछते जिस से अपना नाम ऐसी
शहर में एक तो गली होती

बात कोई कहाँ ख़ुशी की थी
दिल को किस बात की ख़ुशी होती

मौत जब तेरे इख़्तियार में है
मेरे क़ाबू में ज़िंदगी होती

महक उठता नगर नगर ‘ख़ावर’
दिल की ख़ुशबू अगर उड़ी होती

3.
है बहुत मुश्किल निकलना शहर के बाज़ार में
जब से जकड़ा हूँ मैं कमरे के दर-ओ-दीवार में

छे बरस के बा’द इक सूने मकाँ के बाम-ओ-दर
बस गए हैं फिर किसी के जिस्म की महकार में

मुझ को अपने जिस्म से बाहर निकलना चाहिए
वर्ना मेरा दम घुटेगा इस अँधेरे ग़ार में

याद उसे इक पल भी करने की मुझे फ़ुर्सत नहीं
मुब्तला सदियों से मेरा दिल है जिस के प्यार में

देखते हैं लोग जब ‘ख़ावर’ पुरानी आँख से
क्या नज़र आए कोई ख़ूबी नए फ़नकार में

4.
जले हैं दिल न चराग़ों ने रौशनी की है
वो शब-परस्तों ने महफ़िल में तीरगी की है

हदीस-ए-ज़ुल्म-ओ-सितम है हनूज़ ना-गुफ़्ता
हनूज़ मोहर ज़बानों पे ख़ामुशी की है

उस एक जाम ने साक़ी की जो अता ठहरा
सुकूँ दिया है न कुछ दर्द में कमी की है

हमें ये नाज़ न क्यूँ हो कि नय-नवाज़ हैं हम
हमारे होंटों ने ईजाद नग़्मगी की है

चमन में सिर्फ़ हमीं राज़दाँ हैं काँटों के
गुलों के साथ बसर हम ने ज़िंदगी की है

फ़िराक़-ए-यार ने बख़्शी है वस्ल की लज़्ज़त
ख़याल-ए-यार ने ज़ुल्मत में रौशनी की है

हैं जिस की दीद से महरूम आज तक ‘ख़ावर’
उसी की हम ने तसव्वुर में बंदगी की है

5.
जिस तरफ़ जाओगे इक शोर सुनाई देगा
कहीं लेकिन कोई चेहरा न दिखाई देगा

जाने क्या हाल निगाहों का वो लम्हा कर दे
जब न कुछ तेरे सिवा मुझ को दिखाई देगा

डूबते वक़्त की आवाज़ हूँ कर लो महफ़ूज़
फिर मिरे बा’द ये नग़्मा न सुनाई देगा

हाथ फैलाते हुए इस लिए डर लगता है
क्या करूँगा वो अगर मुझ को ख़ुदाई देगा

रात को प्यार की सौग़ात मिली है जिस से
सुब्ह होगी तो वही ज़ख़्म-ए-जुदाई देगा

इतना चुप-चुप जो पड़ा है तो ग़नीमत जानो
दिल को छेड़ोगे तो सौ तरह दुहाई देगा

रूह के साथ मैं उड़ जाऊँगा जाने किस ओर
जब मुझे क़ैद-ए-बदन से वो रिहाई देगा

हाथ खोए हैं तो क्यों ढूँड रहे हो ‘ख़ावर’
क्या तुम्हें घोर अंधेरे में सुझाई देगा

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